कला में स्त्री का वजूद- गोपाल नायडू

कला में स्त्री के वजूद की बात मध्यप्रदेश की चिदम्बरा और चंगोला नामक बंजारा जाति के उल्लेख के साथ शुरू करता हूं। यह बंजारा जातियां सदियों से नर्मदा नदी से सटे वनक्षेत्रों में गुजर-बसर कर रही हैं। इनके तमाम लोकगीत और भित्ति चित्र नारी केन्द्रित हैं। इनकी वेशभूषा और वस्त्रों के रंगों का तालमेल बेमिसाल है। इनके उजडऩे-बसने का संघर्ष, इधर स्मृतिहीनता के पटल पर है, फिर भी स्त्री-विमर्श पर बहस जारी है जबकि अटे पड़े हैं नारी केन्द्रित साहित्य, पेंटिंग, शिल्प, संगीत, चिन्तन और बहस। स्त्री के अस्तित्व की पहचान का संकट, स्थूल और सूक्ष्म रूप के बावजूद, दिन-ब-दिन व्यापक और गहरा होता जा रहा है।
अगर कला संसार में स्त्री के अस्तित्व और विमर्श को खोजा जाए और उसका मूल्यांकन किया जाए, तो स्त्री एक मांसल देह और भोग की छवि की तरह ही रखी जा रही है। समय के साथ एक सेक्यूलर, मानवतावदी, वैज्ञानिक सोच उभरी, तो लगा कि कलाकृतियों में इन तर्कों को स्थान मिलेगा और यह क्रम स्त्री की छवि और रूपकों को आजाद करेगा, लेकिन ज्यादातर कलाकारों ने सृजन में स्त्री प्रश्नों को चुनौती के रूप में तरजीह नहीं दी। कलाकृतियों में कमोबेश जीवन की त्रासदी के स्वर उभरने चाहिए थे, लेकिन इस तरह की कोई सचेत कोशिश नहीं हुई। अगर होती तो कला जगत में सुसंगत और सुस्पष्ट आकार उभरते और साथ ही संदेश भी संप्रेषित होते। इसी अहसास से ओत-प्रोत सुप्रसिद्ध कलाकार वान गाग ने कहा, 'दुनिया एक रेखाचित्र है, जो ठीक से बन नहीं पाया है। शायद सृजन में कोई कलात्मक तत्व पैदा करने की इच्छा नहीं रही होगी।'
पेंटिंगों में स्त्री नजर आती है पर मूल्य और अत्याचारी भाव नदारद हैं। समाज में ऐसी ही कलाकृतियां वास्तविकता को निर्धारित करने लगी हैं और स्त्री देह को बाजार की जरूरतों के मद्देनजर अनुकूलित और नियंत्रित करने लगी हैं।
सांस्कृतिक संकट का दौर
हम सांस्कृतिक संकट के भयानक दौर से गुजर रहे हैं, जहां विज्ञान और तकनीक ने पूरे स्पेस को अपने शिकंजे में जकड़ लिया है। आधुनिकता के नाम पर पूंजीवाद अपने हित के मिथक आसानी से खड़े कर रहा है। कला और दर्शक के बीच पूंजीवाद हस्तक्षेप करने में समर्थ हो गया है। इसलिए व्यक्तित्व के अपहरण के लिए एक खास जमीन, एक खास दूरी को उभारने में सफल हो गया है। हम टेलीविजन पर देखते हैं कि क्रिकेट मैच चल रहा है और बीच में एक विज्ञापन में कप्तान धोनी दाढ़ी बनाता दिखाई दे रहा है। कप्तान धोनी दाढ़ी बना रहा है, लेकिन उसके साथ अद्र्धनग्न वस्त्रों में महिलाएं चिपकी हुई हैं। समझ से परे है यह दृश्य। क्रिकेट का मैच तो समझ में आता है, लेकिन इसके साथ स्त्री देह के क्या मायने? क्या यह सांस्कृतिक त्रासदी है या स्त्री देह की छवि से उत्पाद के प्रति सम्मोहित करने का एक भावुक रिश्ता?
कला का बाजारवादी प्रपंच
रिश्तों को देह के साथ रखकर बाजारवाद प्रपंच करता है। यही वैश्वीकरण की संस्कृति का भौंड़ा रूप है। आखिर जिस्म तो जिस्म है। तकनीक स्त्री देह को भिन्न-भिन्न तरीके से प्रस्तुत करती हे, लेकिन 'देहÓ और भावनाओंÓ को अलग-अलग करने में अभी तो सफल नहीं हो पायी है। हां, भावनाओं को जरूर शिथिल कर दिया है। कारण स्पष्ट है, पूंजी, तकनीक और संचार के विकास ने एक नई अवधारणा को जन्म दिया है। यह है 'लोकप्रिय संस्कृतिÓ यानि कलात्मक सृजन शक्ति से हीन जनसमुदाय को अर्ध कलात्मक उत्पाद समझना और उस पर कलात्मक सामग्री का व्यावसायिक रूप थोपना। लोकप्रिय संस्कृति के निशाने पर विशाल जनसमूह है, लेकिन इसके केन्द्र में स्त्री देह को ही प्रमुखता दी गयी है। हम देख सकते हैं कि पुरुष का पुरुषार्थ बल, अब पूंजी के सूक्ष्म आकार में उभर रहा है। मसलन, समयानुसार यह संस्कृति स्त्री देह के शोषण को स्थूल से सूक्ष्मता की ओर ले जा रही है। मानों जैसे सब कुछ पैसा ही है। स्वाभाविक है कि लोकप्रिय संस्कृति की चकाचौंध में कलाकर्मी भी अपनी स्वायत्तता को खोता जा रहा है। कला जब भी बाहर से निर्धारित और नियंत्रित होती है, तब वह अपने मूल गुण और स्रोत को गंवा बैठती है।
स्त्री संघर्ष नदारद
इस संदर्भ में मकबूल फिदा हुसैन द्वारा प्रसिद्ध सिनेतारिका माधुरी दीक्षित को लेकर बनाई गई पेंटिंगों पर नजर डाली जा सकती है। ये पेंटिंगें चर्चा के केन्द्र में थीं। वैसे ही हुसैन साहब विश्वविख्यात कलाकार हैं। उन्होंने भारतीय जीवन, मिथक, समाज और आख्यानों को भिन्न दृष्टि से कैनवासों पर उकेरा है। बहरहाल, माधुरी दीक्षित पर बनाई पेंटिंगों पर बात हो रही है। ये सभी पेंटिंग यथार्थ पर आधारित हैं, तो क्या इन पेंटिंगों को यथार्थवादी मानना चाहिए। इन चित्रों में मकबूल फिदा हुसैन एक देह को उसकी सत्ता दिला रहे थे। माधुरी की आत्मा तो केनवास पर मृत चीजों की तरह लटकी हुई है। इनमें जीवन का स्पंदन नहीं है। केवल और केवल माधुरी का फिल्मी अंदाज, लटके-झटके और सजावट की चमक-दमक है। इन पेंटिंगों में स्त्री होने का संघर्ष नदारद है।
क्या माधुरी लोकप्रिय संस्कृति व्यवस्था की देन है? क्या यह व्यवसाय से जुड़ी कला है? सच है कि यह फिल्मी बाला समाज में लोकप्रिय है। यही मानकीकरण हुसैन साहब की पेंटिंग में दर्ज हुआ है। सहज ही उनकी ये पेंटिंगें लोकप्रिय संस्कृति का हिस्सा बन गई। इन पेंटिंगों में स्त्री देह की प्रचलित भाषा ही दोहराई गयी, मसलन स्त्री देह की आंगिक भाषा। इन पेंटिंगों को लेकर आम आदमी भी हुसैन पर तरह-तरह की फब्तियां कस रहा था, जैसे वह सिनेमा हाल में करता है। 'बुड्डा सठिया गया हैÓ, 'बुढापे में जवान देहÓ आदि आंगिक भाषाएं खूब उछाली गईं। इन सबके प्रत्युत्तर में हुसैन साहब को कहना पड़ा कि वह माधुरी दीक्षित में मां की छवि देखते हैं। काश, उनका यह आशय उनकी कलाकृतियों के माध्यम से उभरता या दर्ज होता, तो बेहतर होता। निष्कर्ष यह कि हुसैन साहब सृजन करने के बजाए सृजन पर भाष्य करते रहे।
समाज में पुरुष मानसिकता स्त्री देह को नकारात्मक भाषा में पढ़ती और देखती है। लोकप्रिय संस्कृति की इस दुनिया में हुसैन साहब भी पुरुष मानसिकता के शिकार हुए। विज्ञापनों में भी वस्तु की अपूर्णता को भिन्न-भिन्न तरीके से देह में लपेटकर बेचा जा रहा है। कभी स्त्री देह को जूतों, कामुक दवाओं, आभूषणों, सौन्दर्य प्रसाधनों के बीच, तो कभी वाहनों, सुविधा के महंगे सामानों के मार्फत खरीदा-बेचा जा रहा है। इसी तरह पेंटिंग आदि कलाकृतियां भी। स्त्री देह की छवियों का संचार माध्यमों के द्वारा वैश्वीकरण किया जा रहा है। इंटरनेट और वेबसाइटों पर देहों के दर्शन कराने वालों का लेखा-जोखा बराबर रखा जाता है। सुबह से रात तक स्त्री देह को विज्ञापनों में कलात्मक तरीके से परोसा जाता है, रिझाया-खिझाया जाता है, इस धिक्कार के साथ कि क्या करोगे देह को नकारकर? क्या यही अस्तित्व है स्त्री का? या कि यह भी एक उत्पाद है? इसी भूलभुलैया में हुसैन साहब की माधुरी को लेकर बनाई गई तमाम पेंटिंग 'कला और उत्पादÓ के बीच हिचकोले लेती है। वाह! हुसैन साहब, क्या खूब है लोकप्रिय संस्कृति।
विश्व चर्चित कृति का सच
कला की दुनिया में कई तरह की पहचान और अस्मिता है। अपनी शैली, परिवेश और भाषा की पहचान है। इसी के साथ-साथ समाज के विभिन्न पहलुओं पर कलाकृतियां भी हैं। स्त्री प्रश्न पर भी बहुत से कलाकारों की पेंटिंगें हैं। विख्यात कलाकार पिकासो की पेंटिंग 'रोती हुई महिलाÓ को देखिए। पिकासो ने इस कृति में रोती हुई महिला का दु:ख और खंडित भावनाओं की मुद्राएं, मानसिक त्रासदी को उकेरा है। यह उनकी विश्व चर्चित कृति है। वैसे भी अच्छी कलाकृतियों से लंबे समय तक संवाद की इच्छा रहती है, लेकिन जब इस पेंटिंग की रचना प्रक्रिया से गुजरा तो लगा कि रोती हुई महिला आत्महत्या करने के लिए कैनवास से कूद पड़ी है। इस अहसास का सदमा गहरा और चिंतनीय था। चिन्ता का कारण रचना प्रक्रिया है। रचना प्रक्रिया कुछ इस तरह थी, पिकासो अपनी पत्नी से कहते हैं कि घूमने चलना है और अपनी महिला मित्र को बुलाकर उसके साथ घूमने निकल पड़ते हैं। पत्नी अवाक देखती रह जाती है, मानो ठगी गयी हो। पिकासो यही हरकत अपनी महिला मित्र के साथ भी करते हैं, उसे बुलाते और पत्नी के साथ चल पड़ते। पिकासो का मकसद तो इन स्थितियों में महिलाओं के मन की भावनाओं को पढऩा था। इस रचना प्रक्रिया से गुजरने के बाद लगा कि पिकासो इस कृति को गढऩे के लिए महिलाओं की भावनाओं के साथ हिंसक चीरफाड़ कर रहे थे। इस पेंटिंग में 'स्त्री बनाम स्त्रीÓ की भावनाओं और मुद्राओं को खोज रहे थे, लेकिन वह स्त्रियों की जटिल विसंगतियों को पकडऩे में चूकते हैं। इसी तरह महिलाओं को लेकर उनकी अन्य पेंटिंगों में स्त्री नग्न देह को लेकर बहुत सी कृतियां हैं। जैसे आईने के सामने नग्न महिला, कलाकार रेम्ब्रां के साथ नग्न महिलाएं, स्नान करती महिलाएं, नग्न महिला और बच्चा आदि। इन कृतियों को देखकर अगर कोई महिला यह प्रश्न करे कि 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताÓ क्या सिर्फ महिलाओं के दोहन के लिए है, तो इस कलाकृतियों से महिलाओं का संवाद ही नहीं हो पाएगा, मुक्ति का प्रश्न तो बहुत दूर की बात है।
उम्मीद की अलख जगाती कृतियां
इन हालात में कला की दुनिया में स्त्री प्रश्नों की खोजबीन करना एक जटिल कर्म है। मोहभंग भी होता है। भले ही बड़ी संख्या में इन प्रश्नों पर पेंटिंग नहीं हों, लेकिन कुछ तो हैं ही, जो अपनी गौणता के बावजूद उम्मीद की अलख जगाती हैं। इस क्रम में सभी कृतियों का जिक्र संभव नहीं है, लेकिन कुछ का जिक्र के बिना यह अध्याय अधूरा ही रहेगा। ऐसी ही कलाकृति है सुप्रसिद्ध रामकिंकर बैज की 'सुजाताÓ शीर्षक से बना शिल्प। इस शिल्प को देखते ही स्त्री पक्षधरता के भाव ही जेहन में आते हैं। शिल्प 'सुजाताÓ में सादगी, भव्यता और सौम्यता के भाव हैं। इस भाव कथा का आशय कुछ इस तरह है, बुद्ध ज्ञान साधना के पश्चात उठे, तो उनका शरीर असक्त हो गया था। बेहद कमजोर। इन्हीं क्षणों में सुजाता बुद्ध को खीर देती है खाने के लिए। कहती है, 'अगर तुम्हारे शरीर में शक्ति नहीं, तो तुम्हारे ज्ञान की उपयोगिता का अर्थ क्या होगा? कैसे फलेगा-फूलेगा यह ज्ञान जगत में।Ó इसी आख्यान को शिल्पकार बैज ने 'सुजाताÓ की देह भाषा में एक युक्ति की तरह पिरो दी 'संवेदना से विचार की ओरÓ। इस शिल्पाकृति में शिल्पकार बैज ने स्त्री के वजूद को एक नया आयाम और अर्थ प्रदान किया। यह शिल्पकृति एक प्रेरक तत्व के रूप में खड़ी है। ठीक इसी तरह कलाकार अमृता शेरगिल की पेंटिंगें है। अमृता की पेंटिंगों में भारतीय समाज के पुरुष उत्पीडऩ से त्रस्त महिलाओं की जीवन्त भाषा है मुक्तिकामी हितों की चिंता भी।
कला की जो भी समस्या हो, उससे दूर भागना ठीक नहीं होगा। सवाल किए जाने चाहिए वरना कला भी प्रेक्षक के लिए गूंगी-बहरी बनी रहेगी। समस्या चाहे शैलियों को व्याख्यायित करने की हो या मूल्यांकन की हो, उनसे रू-ब-रू होकर ही कलाकृतियों में अनुभव जगत की उपस्थिति पर प्रश्न किये जा सकेंगे। क्या एक विचारधारा के तहत उनके अर्थ और मूल्यों को खोजना उचित होगा? क्या एकांगी तरीके से कलाकृतियों का मूल्यांकन जायज होगा या कलाकारों से भी संवाद करना होगा?
और अंत में महाराष्ट्र की लोकशैली के 'खड़ी गंमत' के संदर्भ में एक वाकया याद आता है। आरंभिक दौर में खड़ी गंमत में महिला पात्र की भूमिका पुरुषों ने निभानी शुरू कर दी। पुरुष जब तक खड़ी गंमत में महिलाओं की भूमिका निभाते हैं, भौंड़े लगते थे। स्त्री की सर्जनात्मक प्रतिरोध की ऊर्जा इशारा है एक नए शुरूआत की। इशारा यह कि वह अपने अस्तित्व के प्रति न केवल सचेत है, बल्कि इन स्थितियों को बदलना भी चाहती है। यही इच्छाशक्ति, आदर्श और ज्ञान की जड़ता का द्वन्दात्मक संघर्ष है।
(यह लेख 2012 में लिखा गया था।)