आखिर आने लगे खुलकर
संपादकीय लेख
प्रदेश में कला और संस्कृति के बढ़ावे के लिए दी जाने वाली अनुदान राशि के अनुचित उपयोग को लेकर शहर के नामी-गिरामी कलाकारों के रोष जाहिर किए जाने के समाचार ने कला जगत में आ रहे बदलाव की ओर स्पष्ट संकेत किया है। अभी तक की परिपाटियों को देखते हुए सीधे कला-संस्कृति मंत्री से 'पंगाÓ लेने का साहस सराहनीय है।
आम तौर पर खुलकर खुद सामने नहीं आने और किसी और के कंधों पर रख कर बंदूक चलाने की कलाकारी में माहिर कलाकारों को भी अपनी शिखंडाई का कारण पता करना चाहिए। शिखंडियों को आईना दिखाते हुए प्रदेश के कुछ कलाकारों ने अगर अनुदान राशि के गलत इस्तेमाल के खिलाफ आवाज उठाई है तो यह साफ है कि कलाकार भले ही कोमलमना हों पर उनमें पुरुषोचित साहस की कमी नहीं होती। वैसे शिखंडी भी बहुत ज्यादा बुरे नहीं होते। आड़ में ही सही युद्ध में तो होते ही हैं। वास्तव मेंं बुरे तो वे हैं जो रुदालियों की तरह अन्याय और भ्रष्ट्राचार का स्यापा तो खूब पीटते हैं, लेकिन उसके बाद मुंह छिपाकर लापता हो जाते हैं। घर में अपनी चूडिय़ां संभालने में इतने व्यस्त होते हैं कि तथ्य या ठोस जानकारी चाहने पर फोन तक उठाना बंद कर देते हैं।
बात कला ही या शिल्प की कला जगत में बने रहने के लिए अपनी कला के साथ और भी बहुत सी अतिरिक्त कलाकारियां करनी होती है। अगर कलाकार बहुत सीनियर है तो उसे अपना गुट बनाना होता है। कम सीनियर है और अपना खुद का गुट खड़ा नहीं कर पाता तो उसे किसी न किसी गुट में शामिल होना होता है। क्योंकि गुटबाजी से परहेज कर उसकी कहीं गिनती नहीं होती। जब गिनती नहीं होती तो नुक्सान होता है, कितना नुकसान होता है, यह बताने की जरूरत नहीं। कुल मिलाकर ज्यादातर सीनियर वह नुक्सान एफोर्ड करने की हालत में नहीं होते।
प्रशासनिक अमले में कौन सा अधिकारी किस गुट का शुभचिंतक है? अकादमी में किस गुट का रबर स्टाम्प चल रहा है? जेकेके में किस गुट को आशा कि किरण नजर आ रही है? बात विज्युअल आर्ट की हो या परफार्मिंग आर्ट की सभी क्षेत्रों में यही आलम है।
मन तो करता है, ऐसे लोगों की कारगुजारियों को तथ्यों और सबूतों के साथ उजागर करते हुए लगातार बेपर्दा किया जाता रहे। बहुत सी जानकारियां और सामग्री उपलब्ध होने के बावजूद यह सोचकर मन पर काबू किया जाता है कि इनके उजागर होने पर भी किसी को कोई फर्क पड़े या न पड़े कला जगत के नवांकुर युवाओं पर जरूर असर पढ़ जाएगा। जिनके दिल और दिमाग की जमीन अभी कच्ची है। कहीं वे इन्हीं को आगे बढऩे का तरीका मान कर इसी राह पर न चल निकलें। वैसे तेजी से सीनियर होते जूनियर भी सयाने तो हो ही रहे हैं।
जूनियर की स्थित भी बहुत अच्छी नहीं है। उसका एक हिस्सा कभी उसके शिक्षक और गुरू रह चुके सीनियर के गुट में होता है तो दूसरा हिस्सा उस गुट में होता है जो उसे तात्कालिक सपोर्ट दे सकता है। ऐसे में दोनों ओर निष्ठा दिखाते हुए जी हजूरी करना उसकी मजबूरियों में शामिल हो जाता है। ऐसा नहीं कर सकने वाला जूनियर कला, संस्कृति के किसी काम का नहीं, अभी तक के अनुभवों में यही देखने और सुनने को मिला है।
लेकिन कला जगत ऐसी स्थिती से बहुत अधिक निराश और हताश नहीं है। प्रदेश में ऐसे कुछ दिग्गज कलाकार भी हैं जो गुटबाजी और अतिरिक्त कलाकारी से परे केवल अपनी कला के बलबूते पर ही अपना सिक्का जमाने में कामयाब हैं। उन्हें न अकादमियों के रहमो-करम चाहिए, न ही उन्हें कला-संस्कृति विभाग की किसी मदद की दरकार है। उनसे आप समय-समय पर मूमल के जरिए रूबरू होते रहते हैं। सब कुछ अच्छा-अच्छा चलता रहे यही कामना है।