हाड़ौती का प्राचीन मन्दिर मूर्तिशिल्प-तकनीकी कौशल व सौन्दर्य का पर्याय

'हाड़ौती का प्राचीन मन्दिर मूर्तिशिल्प प्रदेश के अन्य समकालीन मूर्तिशिल्प की तुलना में अधिक बेहतर और विशिष्ट है। तकनीक, सौन्दर्य और बौद्धिक स्तर पर हाड़ौती का शिल्प अपने समय में श्रेष्ठ था और प्रदेश में दूर-दूर तक इसका प्रभाव था।' यह जानकारी भारत सरकार के सांस्कृतिक मंत्रालय की ओर से सांस्कृतिक स्रोत एवं प्रशिक्षण केन्द्र द्वारा प्रदत एक परियोजना के अन्र्तगत हाड़ौती क्षेत्र के प्रमुख मन्दिर मूर्तिशिल्प की अध्ययन रिपोर्ट में सामने आई है।
पिछले दो साल से चल रहा यह तथ्यात्मक अध्ययन वरिष्ठ पत्रकार राहुल सेन द्वारा किया गया है। इसके तहत प्राचीन ग्रंथों में दिए गए प्रतिमा-लक्षणों से हाड़ौती के मूर्तिशिल्प का मिलान कर इसकी तकनीकी श्रेष्ठता प्रमाणित हुई है। सौन्दर्य से ओत-प्रोत उस काल में नए आयाम स्थापित करने वाली अनेक मूर्तियां केवल हाड़ौती में ही देखी जा सकती है। इस श्रेष्ठता का प्रमुख कारण यहां का विशिष्ट शिल्प कौशल, उच्च बौद्धिक स्तर और विशेष सौन्दर्य दृष्टि था। यह तथ्य यहां शासन करने वाले राजवंशों के प्रभाव, सम्पन्न समाजिक व धार्मिक स्थिति के अध्ययन से प्रमाणित होते हैं।
दक्षिण पूर्वी राजस्थान के कोटा, बूंदी, झालावाड़ और बारां जिलों वाला हाड़ौती क्षेत्र वह स्थल है जो अपनी पुरा-सामग्री और मूर्तिकला के विशिष्ट उदाहरण समेटे हुए है। हाड़ौती का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जो मन्दिर मूर्तिशिल्प परम्परा का साक्षी न हो। मूर्तिशिल्प परम्परा और इतिहास यहां इस तरह गुंथे हैं, जैसे जीव व शरीर। इनमें कौन जीव है और कौन शरीर कहना कठिन है।
यहां मन्दिर और मूर्तियां क्षेत्रीय परम्परा के साथ मध्यकालीन विशेषताओं से युक्त हैं, साथ ही वास्तुशास्त्रीय प्रतिमा-विज्ञान के लक्षणों का विकसित रूप भी दर्शाती हैं। देव मूर्तियों के साथ इस क्षेत्र में लोक जीवन पर भी बहुत सी मूर्तियों का निर्माण हुआ है और इसका प्रभाव शेष भारत पर भी पड़ा है और भारतीय मूर्ति शिल्प में यह हाड़ौती क्षेत्र का विशेष योगदान माना जा सकता है।
राहुल सेन की अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार प्राचीन हाड़ौती मात्र एक भू-खण्ड नहीं माना गया वरन हाड़ौती के हाड़ौती होने के अर्थ में ही परम्परा व भारतीय संस्कार निहित माने जाते रहे है। संसार की किसी भी संस्कृति में शायद ही इतनी सहनशीलता हो, जितनी हाड़ौती की सौहार्द परम्परा में पाई जाती है। हाड़ौती में शैव सम्प्रदाय की प्रधानता होते हुए भी यहां शैव, वैष्णव, शाक्त सहित विभिन्न वर्गों सहित जैन व बौद्ध धर्म के सहअस्तिव के मूर्त उदाहरण देखे जा सकते हैं। यह सुखद स्थिति के लिए हाड़ौती उस काल के पारस्परिक सौहार्द सम्बन्धों की दृष्टि से दूर-दूर तक जाना जाता था। हाड़ौती की मूर्तिकला परम्परा मालवा व देश की शिल्पकला में निरंतर अपना महत्वपूर्ण योगदान देती रही। इस युग में अनेक धर्मों व मतों के मंदिरों सहित देव मूर्तियों, अवतारवाद की मूर्तियों का निर्माण होता गया। इसी के चलते हाड़ौती क्षेत्र की मूर्तिशिल्प परम्परा का योगदान मध्यभारत की गौरवशाली संस्कृति तथा कला के चरम उत्कर्ष का साक्षी रहा।
असाधारण तकनीकी प्रौढ़ता
यह कहा जा सकता है कि, 9वीं से 13वीं शताब्दी ई. के बीच हाड़ौती के मन्दिर मूर्ति शिल्प तकनीक पर विभिन्न प्रभावों की विशेषता रही। तकनीक को प्रभावित करने वाले तत्वों में सर्वाधिक प्रबल पक्ष शिल्पियों की मनोदशा और उत्तरोत्तर उत्कृष्ट होते कौशल को माना जा सकता है। इसमें यहां कला से सम्बन्धित मूल साधन-स्त्रोतों की सहज उपलब्धि व निर्बाध व्यापारिक मार्ग सहित के सम्पन्न व कलाग्रही श्रेष्टिवर्ग और शिक्षित समाज के समर्थन की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही।
शिल्पियों ने देवी-देवताओं के विभिन्न स्वरूपों की शास्त्र सम्मत परिकल्पना कर उन्हें मूर्तियों के माध्यम से जीवन्त किया। इसी के साथ विभिन्न समय काल की मूर्तियों के तकनीक तकनीकी पक्ष में दर्शित परिवर्तन से यह स्पष्ट परिलक्षित है कि हाड़ौती के शिल्पियों ने नवाचार के चलते अनेक साहसिक प्रयोग भी किए। इस दौरान सुधरे और निखरे शिल्पों में असाधारण तकनीकी प्रौढ़ता नजर आती है।
राजस्थान ही क्या देश के अन्य क्षेत्रों के मूर्तिशिल्प में भी तकनीकी दक्षता की कमी नहीं, सौन्दर्य भी भरपूर है, व्यंजना की भी असीम क्षमता है, व्यापक प्रभाव की भी वह धनी हैं, किन्तु यह समस्त प्रवृतियां एक स्थान पर एकत्र कम ही मिलती हैं और इस मात्रा में तो कहीं नहीं जिस मात्रा में हाड़ौती शिल्प में पाई जाती है।
सौन्दर्य से ओत-प्रोत शिल्प
हाड़ौती के शिल्पकारों ने मन्दिर मूर्ति शिल्प के सौन्दर्य अंकन में एक इतिहास रचा है। शिल्पकारों ने जहां एक ओर प्रतिमा निर्माण के नियमों को आत्मसात किया और तकनीकी पक्ष को प्रबल रखा वहीं दूसरी ओर सौन्दर्य पक्ष के नए मानदण्ड कायम किए। सौन्दर्य को अभिव्यक्त करते समय वस्त्र व आभूषणों के नवीनतम व सूक्ष्म अंकन को जीवन्तता प्रदान की।
इसके साथ मन्दिर के प्रत्येक भाग चाहे वो उदम्बर हो या शिखर कलश, तोरण हो या द्वार शाखाएं, दीवारों के अलंकार हो या छत का शिल्पालेखन, थरों, चबूतरों, धरणियों, यज्ञ कुण्डों, वेदिकाओं, स्तम्भों के सौन्दर्य अलंकरण में भी अपनी सौन्दर्य दृष्टि को सजीव किया। यहां के शिल्पियों ने सभी सौन्दर्य बिन्दुओं का संयोजन कर हाड़ौती के मन्दिर मूर्ति शिल्प सौन्दर्य को अमर बना दिया।
हाड़ौती की उच्च बौद्धिक स्थिति
हाड़ौती की उच्च बौद्धिक स्थिति का प्रभाव मन्दिर मूर्तिशिल्प में साकार होता रहा और हाड़ौती के शिल्प कौशल ने इतिहास रच दिया। विभिन्न कालखण्डों से गुजरते हुए हाड़ौती के मूर्तिशिल्प ने कई शासकों के नेतृत्व में उसने परिपक्वता को प्राप्त किया। शासन कालों में होने वाले परिवर्तनों सहित ही शिल्पी के साथ तत्कालीन समाज के बौद्धिक चिन्तन और विकास की यात्रा निरन्तर गतिशील रही।
हाड़ौती के उपलब्ध इतिहास, पुरा साक्ष्य तथा यहां से प्राप्त शिलालेखों पर उत्कीर्ण वर्णन, वहां का सजीव रचना कौशल तथा तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में बौद्धिक चिन्तन व विकास यहां की स्थिति को प्रमाणित करता है। उस समय रचे गए शिल्प ग्रंथ आज भी शिल्प कला के प्रमाणिक दस्तावेज तो हैं ही, आज के सन्दर्भ में शिल्प रचना के लिए उपयोगी भी हैं।
बौद्धिकता का प्रभाव ना केवल हाड़ौती के हिन्दु मन्दिर मूर्तिशिल्प पर अपनी छाप दिखाता हुआ हमारे सामने है वरन् जैन और बौद्ध मूर्ति शिल्प भी बौद्धिक प्रभाव को चरितार्थ करते हैं। देव मूर्तियों के साथ जन सामान्य पर केन्द्रित शिल्प रचनाएं बौद्धिकता की गाथाएं गुनगुनाती हैं।
यहां के शिल्प में आश्चर्यजनक रूप से प्रकृति के आधार पंचतत्व को आकार दिया गया। प्रज्वलित अग्नि, जल की सबसे छोटी मात्रा बूंद से लेकर नदी और अपार समुद्र तक का भान कराया गया है। नदियों की मानवाकृतियां, आकाश में बहती हुई वायु तथा पृथ्वी तक को शिल्पियों ने मूर्तियों के रूप में प्रस्तुत किया। प्रकृति से सम्बद्ध वनस्पति का अंकन भी प्रचुरता से हुआ।
पशु-पक्षियों के अंकन में शिल्पाचार्यों व शिल्पियों ने अपनी कल्पना की उड़ान को सारा आकाश दिया। मानवरूप में गरुड़ का अंकन हो या मानवरूपी मूषक, हुमा जैसे काल्पनिक पक्षी की बात हो या विभिन्न जीवों से मिलकर बनाए गए 'अललपंख' जैसे जीव की अद्भुत रचना हाड़ौती के मूर्तिशिल्प को एक अलग आयाम प्रदान करता है।
सामाजिक पक्ष उसकी जीवन शक्ति थी
हाड़ौती के मन्दिर मूर्तिशिल्प में जहां एक ओर मूर्तिशिल्प का धार्मिक पक्ष शिल्प का जीवन था, तो सामाजिक पक्ष उसकी जीवन शक्ति थी। मन्दिर मूर्ति निर्माण कार्य से समाज के प्रत्येक पक्ष का किसी ना किसी रूप में जुड़ाव भी रहा और योगदान भी। शिल्प निर्माण में लगने वाले कौशल, धन व सामग्री की व्यवस्था, श्रम की पूर्ति या शिल्प अंकन के विषयों के लिए समाज का योगदान महत्वपूर्ण था।
हाड़ौती में निर्मित मन्दिर मूर्ति शिल्प में ऐसी रचनाएं भी प्रचुर मात्रा में हैं, जो सामान्य रूप से श्रृंगारिक या देव पूजन से सम्बन्धित नहीं हैं। इनमें सामान्य ज्ञान व सामाजिक लोकाचार के शिक्षण हेतु निर्मित शिल्प भी हैं तो गूढ़ विषयों से सम्बन्धित शिल्प रचनाएं भी। प्राप्त शिल्पों के अध्ययन से उनके तत्कालीन शिक्षण से सम्बद्ध होने का स्पष्ट भान होता है।
विषयों की गम्भीरता के अनुसार शिक्षण केन्द्रों के रूप में सामान्य पाठशालाएं, गुरुकुल व मन्दिरों को चिन्हित या निर्धारित किया जाता था। इसके साथ ही यह भी प्रमाणित होता है कि मन्दिर मूर्तिशिल्प का तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था से गहन जुड़ाव था।
हाड़ौती का प्रभाव दूर-दूर तक तक
हाड़ौती के शिल्प का राजस्थान के कुछ अन्य क्षेत्रों के शिल्प से अनेकानेक क्षेत्रों में साम्यभाव स्पष्ट दृष्ट्रिगोचर होता है। इसके समर्थन में विभिन्न तथ्य स्वयं प्रस्तुत होने लगते हैं। राजस्थान के हाड़ौती जैसे एक कोने से प्राप्त मन्दिर मूर्ति शिल्प की समानता जब राज्य के दूसरे कोने में वागड़ के मूर्तिशिल्प में मिलती है तो उसके प्रभाव व साम्य को स्वीकार करना ही पड़ता है। हाड़ौती शिल्प से सम्बद्धता के लिए पड़ौसी मेवाड़ सहित सुदूर मारवाड़ व वागड़ क्षेत्र के प्रतिनिधि मन्दिरों के शिल्प देखे जा सकते हैं। यह सभी अपने मूर्तिशिल्प व स्थापत्य के लिए प्रसिद्ध हैं। सभी सम्बद्ध मन्दिरों में स्थित प्रमुख देव मूर्तियों सहित स्थापत्य, अलंकरण, नारी सौन्दर्य, धार्मिक व सामाजिक जीवन से जुड़े प्रतिनिधि शिल्पों की तुलना से स्थिति स्पष्ट होती है। इससे यह भी सामने आया कि विवेच्य काल में हाड़ौती सहित राजस्थान के मूर्तिशिल्प ने अपनी स्वतन्त्र शैली रच डाली। यह शैली शिल्प के गठन से लेकर तकनीक व सौन्दर्य की अन्र्तदृष्टि तक में अनुभूत होती है। इसका प्रमुख कारण शासकों, श्रेष्ठिवर्ग व शिल्प स्थापकों की विचारधारा ही प्रतीत होती है।
राजस्थान के अन्य क्षेत्रों में स्थापित मूर्तिशिल्प का हाड़ौती से सम्बन्ध की विवेचना करते हुए यह तथ्य स्पष्ट होते है कि शिल्प शास्त्रों में वर्णित प्रतिमा-लक्षण व निर्देशों की पालना करते हुए भी शिल्प में किए जाने वाले नवीन प्रयोगों ने हाड़ौती के मूर्तिशिल्प की पृथक पहचान स्थापित कर दी। चित्तौडगढ़़ जिले के मेनाल व भीलवाड़ा के बिजोलिया सहित राजस्थान के अनेक मन्दिरों के मूतिशिल्प पर हाड़ौती शिल्प परम्परा का प्रभाव है। रिपोर्ट में विभिन्न स्तर पर स्पष्ट किया गया है कि हाड़ौती का मूर्तिशिल्प राजस्थान के अन्य क्षेत्रों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक उन्नत और विशिष्ठ है।
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74 पुरा-स्थल हैं संरक्षित
उल्लेखनीय है कि लगभग 12 हजार 652 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हाड़ौती क्षेत्र में कुल 74 संरक्षित पुरा-स्थल हैं। इनमें 14 केन्द्र सरकार और 60 राज्य सरकार द्वारा संरक्षित हैं। जिलेवार नजर डाली जाए तो संरक्षित स्थलों की सर्वाधिक संख्या बांरा जिले में है जो कुल 27 है। इनमें 22 राज्य सरकार तथा 5 केन्द्र सरकार द्वारा संरक्षित हैं। बूंदी में कुल19 स्थल हैं, इनमें 16 राज्य तथा 3 केन्द्र सरकार द्वारा संरक्षित हैं। इसके बाद कोटा जिले का स्थान है जहां राज्य सरकार 14 तथा केन्द्र सरकार द्वारा 3 कुल 17 संरक्षित पुरा-स्थल हैं। सबसे कम झालावाड़ में 11 पुरा-स्थल संरक्षित हैं, इनमें 8 राज्य सरकार तथा 3 केन्द्र सरकार द्वारा संरक्षित हैं।